बिमल रॉय की जयंती: उनकी इस फिल्म से भारतीय सिनेमा को मिली थी नई सोच

नई दिल्ली। भारतीय सिनेमा के इतिहास में कुछ फिल्मकार ऐसे हुए जिन्होंने सिनेमा को सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन का माध्यम बनाया। बिमल रॉय उन्हीं चुनिंदा फिल्मकारों में शुमार हैं। 12 जुलाई 1909 को जन्मे बिमल रॉय को उनकी यथार्थवादी और मानवीय सरोकारों से जुड़ी फिल्मों के लिए आज भी याद किया जाता है।

बिमल रॉय ने ‘दो बीघा जमीन’, ‘बंदिनी’, ‘देवदास’, ‘मधुमती’, ‘सुजाता’, ‘परिणीता’ और ‘परख’ जैसी फिल्मों के ज़रिए समाज की समस्याओं और असमानताओं को बड़े पर्दे पर बेहद प्रभावी तरीके से दिखाया।

जमींदार परिवार से फिल्मों तक का सफर

बिमल रॉय का जन्म एक जमींदार परिवार में हुआ था। लेकिन उनके पिता की आकस्मिक मृत्यु के बाद परिवार में कलह और संपत्ति विवाद हुआ। इसका नतीजा यह हुआ कि बिमल रॉय को अपनी पैतृक जमीन-जायदाद छोड़नी पड़ी। इसके बाद उन्होंने पढ़ाई पूरी की और फिल्मों में कुछ करने के इरादे से कलकत्ता (अब कोलकाता) का रुख किया।

बिमल रॉय का करियर

बिमल रॉय ने अपने करियर की शुरुआत न्यू थिएटर्स, कोलकाता में एक कैमरामैन के रूप में की। बाद में उन्होंने निर्देशन में कदम रखा और 1944 में अपनी पहली बंगाली फिल्म “उदयेर पाथे” बनाई, जो बाद में हिंदी में “हमराही” (1945) के रूप में रिलीज हुई। बिमल रॉय ने बंगाली और हिंदी सिनेमा में बतौर छायाकार और निर्देशक शुरुआत की। जल्दी ही उनकी प्रतिभा पहचान ली गई और उन्होंने कई सुपरहिट और क्लासिक फिल्में बनाईं।

‘दो बीघा जमीन’ ने रचा इतिहास

साल 1953 में आई ‘दो बीघा जमीन’ को भारतीय यथार्थवादी सिनेमा की मील का पत्थर माना जाता है। यह फिल्म किसानों की समस्याओं और विस्थापन की मार्मिक कहानी कहती है। फिल्म में बलराज साहनी और निरूपा रॉय की शानदार अदाकारी ने दर्शकों का दिल जीत लिया।

‘दो बीघा जमीन’ को 1954 में पहला फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला। इसके साथ ही इस फिल्म को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सराहा गया। कांस फिल्म फेस्टिवल में इसे इंटरनेशनल प्राइज़ ऑफ द ईयर मिला।

फिल्म की गहराई और प्रभाव का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि राजकपूर ने इसे देखकर कहा था — “मैं क्यों नहीं बना पाया यह फिल्म? हजारों साल बाद भी अगर भारत की 100 सर्वश्रेष्ठ फिल्मों की सूची बनेगी, तो इसमें यह जरूर शामिल होगी।”

अंतरराष्ट्रीय सम्मान और अवॉर्ड्स

बिमल रॉय की फिल्मों ने भारतीय सिनेमा को दुनिया में नई पहचान दिलाई। साल 1954 में उन्हें कांस फिल्म समारोह में अवॉर्ड मिला। उनके खाते में 2 राष्ट्रीय पुरस्कार और 11 फिल्मफेयर पुरस्कार दर्ज हैं।

1958 में उनकी फिल्म ‘मधुमती’ ने 9 फिल्मफेयर अवॉर्ड जीतकर रिकॉर्ड बनाया। ‘देवदास’, ‘परिणीता’, ‘सुजाता’ और ‘बंदिनी’ जैसी फिल्मों में भी उनकी सामाजिक चेतना और मानवीय दृष्टि साफ दिखाई देती है।

बिमल रॉय से जुड़ी दिलचस्प बातें

बिमल रॉय ने न्यू थिएटर्स में बतौर सहायक काम करते हुए सिनेमाई तकनीकों को गहराई से समझा। 1950 में उन्होंने अपनी प्रोडक्शन कंपनी “बिमल रॉय प्रोडक्शंस” की स्थापना की, जिसके बैनर तले उन्होंने कई उत्कृष्ट फिल्में बनाईं।

उनकी फिल्म “दो बीघा जमीन” (1953) इटालियन नव-यथार्थवादी सिनेमा से प्रेरित थी, विशेष रूप से विटोरियो डी सिका की फिल्म “बाइसिकल थीव्स” से। यह फिल्म एक गरीब किसान की कहानी थी, जिसने सामाजिक असमानता और शहरी-ग्रामीण जीवन की विसंगतियों को उजागर किया। इस फिल्म को बनाने के लिए बिमल रॉय ने अपनी पूरी बचत लगा दी थी, और यह एक जोखिम भरा कदम था जो अंततः सफल रहा।

बिमल रॉय को साहित्य से गहरा लगाव था। उनकी कई फिल्में, जैसे “परिणीता” और “देवदास”, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यासों पर आधारित थीं। उनकी फिल्म “सुजाता” भी सामाजिक मुद्दों जैसे छुआछूत पर आधारित थी और इसे दर्शकों और समीक्षकों ने खूब सराहा।

बिमल रॉय के “दो बीघा जमीन” को 1954 में कान्स फिल्म फेस्टिवल में विशेष सम्मान मिला, और यह भारत की पहली फिल्म थी जिसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इतना बड़ा सम्मान प्राप्त हुआ। इसके अलावा, उनकी फिल्म “मधुमती” ने भी कई पुरस्कार जीते और व्यावसायिक रूप से बहुत सफल रही।

बिमल रॉय अपने जीवन के अंतिम वर्षों में फेफड़ों के कैंसर से जूझ रहे थे। इसके बावजूद, उन्होंने अपनी आखिरी फिल्म “बंदिनी” (1963) को पूर्ण समर्पण के साथ बनाया। इस फिल्म को उनकी सर्वश्रेष्ठ कृतियों में से एक माना जाता है।

बिमल रॉय की प्रमुख फिल्में

बिमल रॉय ने अपने करियर में कुल 16 फिल्मों का निर्देशन किया, जिनमें से कई उनकी प्रोडक्शन कंपनी के बैनर तले बनीं। उनकी कुछ प्रमुख फिल्में निम्नलिखित हैं:

  • उदयेर पाथे/हमराही (1944): उनकी पहली बंगाली और हिंदी फिल्म, जो सामाजिक सुधारों पर आधारित थी।
  • अनियंग (1947): बंगाली फिल्म, जो यथार्थवादी सिनेमा का एक उदाहरण थी।
  • मां (1952): एक पारिवारिक ड्रामा।
  • दो बीघा जमीन (1953): सामाजिक यथार्थवाद पर आधारित, यह एक गरीब किसान की कहानी है। इसे राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और कान्स में सम्मान मिला।
  • परिणीता (1953): शरतचंद्र के उपन्यास पर आधारित रोमांटिक ड्रामा।
  • नौकरी (1954): बेरोजगारी और शहरी जीवन की समस्याओं पर आधारित।
  • देवदास (1955): शरतचंद्र के उपन्यास पर आधारित, दिलीप कुमार अभिनीत यह फिल्म एक क्लासिक बन गई।
  • मधुमती (1958): पुनर्जनन पर आधारित रोमांटिक-रहस्यमयी फिल्म, जिसने 9 फिल्मफेयर पुरस्कार जीते।
  • सुजाता (1959): छुआछूत और सामाजिक भेदभाव पर आधारित एक संवेदनशील फिल्म।
  • परख (1960): ग्रामीण भारत में नैतिकता और भ्रष्टाचार पर आधारित।
  • प्रेम पत्र (1962): प्रेम और त्याग की कहानी।
  • बंदिनी (1963): एक महिला की भावनात्मक और नैतिक दुविधाओं पर आधारित, उनकी सबसे प्रशंसित फिल्मों में से एक।

अंतिम समय और विरासत

बिमल रॉय की फिल्में सादगी, गहरी भावनाओं और सामाजिक संदेशों के लिए जानी जाती हैं। उनकी कहानियाँ आम आदमी के जीवन से प्रेरित थीं। उन्होंने कई प्रतिभाशाली कलाकारों और तकनीशियनों को मौका दिया, जैसे दिलीप कुमार, नूतन, वैजयंतीमाला, और संगीतकार सलिल चौधरी। उनकी प्रोडक्शन कंपनी ने न केवल उनकी फिल्में बनाईं, बल्कि अन्य निर्देशकों की फिल्मों को भी समर्थन दिया, जैसे “काबुलीवाला” (1961)।

कैंसर से लंबी लड़ाई के बाद बिमल रॉय ने मुंबई में, 8 जनवरी 1965 में महज 55 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह दिया। लेकिन उनकी बनाई फिल्में आज भी जीवित हैं और नई पीढ़ी को सोचने पर मजबूर करती हैं। बिमल रॉय ने भारतीय सिनेमा को सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज के आईने के रूप में पेश किया। उनकी विरासत आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी रहेगी।

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